Saturday, 16 April 2016

संस्कार!

सुना तो था कई मर्तबा
बड़े बुजुर्गों से कि
घिस जाती हैं चप्पलें अक्सर
और कि राहें होती हैं पथरीली
बहुत बार पड़ जाते हैं छाले भी।

मगर देखा इस बार इतने करीब से
कि महसूस किया इसकी छुअन को।

किसी तपस्वी जैसे लगे थे
बड़ी बड़ी बातें की थी जब ‘हाकिम’ ने
आँखें घुमा- घुमा कर दुनियादारी की
किस्तों में बिखरी परेशानी की।

लगा बदल गयी है वह सड़क शायद
घिस जाया करती थी जिसपर
चप्पलें दादाजी और चाचाजी की।
कि यह सड़क है ईक्कसवीं सदी की।

पर शायद ठीक से नहीं आ पाए थे
समझ में आखों के इशारे ‘साहब’ के
वे तेजाबी जलन मक्खन – सी बातों के
नहीं भांप पाया था उस दिन।

तभी तो दबी पड़ी हैं फाइलें
आज तक ग्रेच्युटी की मेरी,
‘मुंशी जी’ की ढ़ीली पैंट की तरह
सरक आती है नीचे बार-बार
खुशी ईमानदारी की।

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