Friday, 11 March 2016

कविता : सौन्दर्य - छाया

बोलती है यह दृष्टि तुम्हारी
मौन स्वप्नों की सारी कहानी
बंद हो ना यह पलकों के झरोखे
रूक न जाए यह मस्ती ये रवानी
अलकों की जाल एक रेशमी-सी
कर रही बावला योगी मन को
मन ये करता है इनकार कर दूँ
जबकि मुश्किल है मन का संभलना
भोर की जैसे केसर किरण हो
या कि अंबर से उतरी अप्सरा
शब्द है कौन-सा इस जगत में
जो कहे तुम तो सबसे अलग हो
छुप गया सूर्य भरी दोपहरी में
रूप की ऐसी छायी जो बदली
जलती है एक किरण फिर भी देखो
प्रेम का सूरज लगा है चमकने
टूट कर डोर से एक पतंग-सी
आ गिरो आज जीवन महल में
एक जीवन का है मोल क्या अब
कम लगे अब तो सौ जन्म भी
इन दो नयन और अधरों के आगे!

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