Saturday, 12 March 2016

कविता : खाली कमरा

यह कौन झाँकता है
वहाँ समय के पीछे से?
कहीं यह तुम तो नहीं!
नहीं। तुम तो कब की बढ़ गयी थी
समय से आगे!
लेकर सारा साजो-सामान अपना और
छोड़ गयी थी कोने में कूड़ा कचरा
जैसे खाली करता है
किराएदार कोई कमरा।
उसी में मिली थी धूल धूसरित
उबासी लेतीं तमन्नाएँ
और अपनी चंचल गलबहियाँ
अरे हाँ! दराज़ में रह गयीं थीं
कुछ चीजें जैसे –
बीते हुए पल की हल्की सी धमक
और गूंजन करते कहे-अनकहे शब्द तेरे।
क्या कहा? तुम ही हो!
आयी हो क्या लेने अवशेष अब-
मेरे साथ होने की कुछ निशानियाँ?
तो ले जाओ पास से मेरे
समय शुन्य में ठहरी अधूमिल हँसी
तेरी महकतीं मचलतीं अठखेलियाँ
और छान लेना फिज़ा में घुलीं
अब तक की सारी स्मृतियाँ।

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