
बुने जाते हैं ताने - बाने आशाओं के
भावनाओं के कोपलें फूटती हैं नित्य नवीन
सींचकर संस्कारों से खिलते हैं उम्मीद अनगिनत
रचे जाते हैं कामनाओं संग स्वयंवर
अंगीकार होने को स्वप्न कई रश्मिल
आकांक्षाएँ गोद में हैं पलती
पितृ-छाया में सुस्ताता है आनंद
और करवटें बदल - बदल सोता है जीवन
भूलकर रंजो-ग़म
ऐसा घर रोज-रोज कहां बनता है
इमारते फिर भी खड़ी हो जाती हैं कई।
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