हर सुबह कार्यालय जाने की भागदौड़ और शाम ढ़ले घर वापस आने का क्रम निरंतर चलता है। उस दिनचर्या के बाहर यदि कुछ समय बचा तो घरेलू कार्यों का संपादन और उससे अवकाश मिला तो व्हाटस एप, फेसबुक जैसे थौड़ा सा आवश्यक कार्य। उससे इतर नज़रे घूँमती हैं तो कंक्रीट के बने बसाये जंगल के किसी एक बसेरे में कैद पाता हूँ स्वयं को। मौसम का बदलना भी यदि महसूस करना है तो गौर से देखना होगा आपको उन सबके बीच।
ऐसे ही कल वातानुकूलित ऑफिस के उबाऊ दिनचर्या से कुछ अवकाश लेकर बाहर कॉरिडोर में खड़ा हो गया। मार्च की गर्मी अपना असर दिखा रही थी। खुले की तपती धूप और गर्म हवा शीशे के अंदर कॉरिडोर तक महसूस हो रही थी। दूर में फैली पहाड़ी श्रृंखला उष्ण होकर मानो हाँफ रही थी। कभी हरीतिमा के आवरण में पसरी उसकी काया जीर्ण-शीर्ण दिख रही थी। वृक्षों के साये भी पतझड़ से पस्त दिख रहे थे। पत्तियों का जीवन चक्र बीत चुका था। टहनियों को अधुरा - आवरण विहीन कर वे जा चुके थे। बेचारी टहनियाँ दुख और ह्या से हिलती भी न थीं ।
प्रकृति के उन पहरुओं के लिए हृदय में संवेदना और दृष्टि में कातरता भर आयी। सोचा वापस अंदर जाकर बैठना ही उचित रहेगा। वापस मुड़ने ही वाला था कि लगा कुछ इशारा हुआ बाहर से। भ्रम और कौतूहलवश दृष्टि घूमने लगी और जल्द ही आवरणहीन वृक्ष-सायों के बीच एक लघु हरित गुच्छ पर जाकर ठहर गयी। गौर से देखा तो एक अनाम सा पेड़ अपने नवजात पत्र - दलों के साथ शनै: शनैः डोल रहा था। ऐसा लगता था जैसे उनकी हरीतिमा से पत्रविहीन टहनियों के साये भी आलोकित थे। कुछ पल में ही दृश्य भिन्न सा हो गया। या शायद यह दृष्टि की आलोकित आभा और बदले हुए अंत: की संतृप्त आशा थी जो मुझे अलग आभास करा रही थी।
मुझे लगा जैसे परिवर्तन ही प्रकृति की एकमात्र स्थायी और अक्षय प्रक्रिया है। बाकी सब परिवर्तनशील है, कल भी और आज भी। यदि पतक्षड़ आया है तो वसंत भी पीछे - पीछे आयेगा। प्रकृति के इस संदेश के साथ मैं वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गया।
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