जहाँ उगता है सुरज उम्मीद का
खिलती है अरमानों की उजली धूप
रौशन होता है चाहत का आसमान
ऐसा आंगन
ऐसा सवेरा
ऐसा क्षितिज
हर घर
हर धरती
हर दृष्टि को नहीं मिलता
फिर भी बसता है
सारा संसार यहाँ सबका।
जीवन के क्षणों से निकल कर अनयास या (कभी-कभी) सायास कुछ भंगिमाएँ शब्दों में आकर समा जाती हैंं , उसे मैं कविता कहकर अपने पास रोक लेता हूँ ..उन्मुक्त आँगन में..!
“कितने हुए..? “-कुर्ते की ज़ेब में हाथ डालते हुए रामकिसुन ने पूछा। “पंद्रह रूपये हुजूर”- हांफते हुए कहा रिक्शेवाले ने। “अरेssss..!.. क्या...
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