Wednesday 11 May 2016

नियति

दूर हो रहे सितारे कभी मेरे थे
और इनकी रौशनी भी कभी मेरे
अख्तियार में हुआ करती थी।

बड़े यत्न से तराशे किसी कोहिनूर से
कम नहीं थी उसकी मुस्कान,
झेंप जाया करती थीं अक्सर उपमाएं
उसके सामने पड़कर, देखे थे हमने।
ये लम्हे ढ़ीठ जो हंसी करते हैं मेरी आज,
उससे मिलाने को मिन्नतें करते थे हजारों।
रात-रात भर जागते थे हवा के अनवरत
झोंके उसे सुलाने को।

सपने होने लगे थे श्रृंगारित हमारे,
आशाएँ जवान हो चलीं थी तब ।

तभी नियति ने नजरे फेर ली,
अभिमान ने शेषनाग सा हिला दिया,
नींव का पत्थर-
भरभरा कर ढ़ह गयी सपनों की दुनिया।

डंके की चोट पर बोली लगती गई,
लगती गई और एक एक कर सारे
सितारे आसमान ने नीलाम करवा लिए।

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