Saturday 23 September 2017

प्रेम के सिरहाने में : मेरी कुछ कविताएँ

सफ़र



जैसे-जैसे बढ़ता गया
और चलने की चाह में चलता गया
काटता गया बस
सफ़र ज़िंदगी का
और निकला था लेकर जो
पोटली आनंद की
धीरे-धीरे घटता गया
हालाँकि आने वाली है मंज़िल
ऐसी संभावना अभी दिखती नहीं।


कलरव 


जीवन का स्वाद और
भाषा की मिठास 
पिंजड़े में बंद परकटे पंछी की मधुर गान में नहीं 
स्वछंद उड़ान में थिरकते
परों की धुन पर गूंजते कलरव में होती है 



शिष्टाचार


धैर्यविहीन धवल वह लहर
बिछी आती है प्रात तट की 
अशांत शीतल गरमाई पर 
बिना देखे, बिना मुड़े 
उन धैर्यवान तरंगों की ओर
जिसने हाथ पकड़ निकाला और पहुँचाया
उसे असीम गहराई से किनारे तक
ओदे रेत पर फिसलते
नर्म, नारंगी सूरज से मिलाने.. 

जबकि लौटने से पहले 
मिलना चाहिए था उनको
कम-से-कम
अंतिम अभिवादन विदाई का! 
( तस्वीर गूगल से )

प्यार का अंतराल

सूर्योदय का सूरज 
आवरण से बाहर आती कली
संपूर्ण होती सुंदर रचना चित्रकार की 
मुझसे मिलकर खिलता तेरा चेहरा। 

दोपहर का सूरज 
चमकता तेरा रूप-सिंगार
मचलती मेरी लालसा 
प्रज्वलित प्रेम हमारा। 

सूर्यास्त का सूरज 
न चाहते हुए भी
तुमसे दूर जाने की वेदना 
विदा करता रक्ताभ चेहरा तुम्हारा 
तुम्हारी अवांछित याद को 
मिटाती मेरी बेबसी। 




Saturday 13 May 2017

बारिश के बाद

“ अभी फ़ारिग होना है पेड़ों को, रात की बची हुई नींदों से
सुना है बारिश की बूंदों ने, उन्हें रात भर जगाए रखा है”

“बड़े समय से पहुँचे हो मियाँ,  देखो मौसम कितना खुशगँवार है
झूमते हुए उस पौधे ने कहा, जड़ों ने जिसे अभी अपने पास रखा है”

“बलखाती हवा निकल गई सर्र से, मस्तियों में उन्हें हिला गई 
वे सजीले फूल थे मालतियों के, जिन्होंने रंगों को बचा रखा है”

“परिंदों का एक कारवाँ अभी, उतरा है इस शहरे- बियावान में
बसते हैं बहुत लोग जहाँ , उसे जगा इन बेचारों ने रखा है”

“मेरी हसीन गुड़िया है वो, धीरे – धीरे बढ़ रही मेरी परछाई है 
पराया कहती है दुनिया उसे , जिस दौलत ने मुझे अपनाए रखा है”


चित्र : बेटी और मैं

Tuesday 25 April 2017

गौरैये लौट आए हैं!

गौरये लौट आए हैं!

देखा मैंने
आज उद्यान की दूब पर उन्हें 
फुदकते हुए

गौरये
कहाँ थे अब तक

पूछा तो कहने लगे-
पंख खाली नहीं थे हमारे
इधर से उधर लिए
फिर रहे थे घरौंदे 
 
ढ़ूढ़ रहे थे 
 
कविताओं की तरह
सुरक्षित-सा ठिकाना कोई.. 



चित्र :गुगल से 

Friday 14 April 2017

ब्लॉगिंग के साल भर बाद


सच कहूँ तो ब्लॉग लिखने की शुरुआत जब मैंने की, तो कोई उद्देश्य नहीं था इसके पीछे। बस अपने लिखे हुए को एक जगह देने की कोशिश की थी। ब्लॉगिंग की ए. बी. सी. डी भी पता नहीं थी। लेकिन गुगल के साथ यह मुश्किल भी आसान हो गयी। शुरूआती उत्साह था सो जब भी समय मिलता pageview, traffic, etc. बढ़ाने के तरीक़े ढ़ूँढ़ता, कोई भी विचार आया नहीं कि झटपट कविता बनाकर पोस्ट कर दिया। शुरूआत के उत्साह का असर था बनने के पहले महीने में ही 13 कविताएँ पोस्ट हो चुकी थीं। लेकिन ब्लॉगिंग की कई सारी ज़रूरतें होती हैं जिनमें से विभिन्न ब्लॉग-समूहों में शामिल होना, लगातार सक्रिय रहना, अलग-अलग लोगों से संपर्क बनाना, वगैरह-वगैरह..इसी कड़ी में मैंने इसका नाम रखा – हिन्दी कविता धारा। लेकिन हिन्दी कविता जैसे बड़े धरातल को अपने ब्लॉग के लिए छोटा करना मुझे शर्मिंदा करने लगा और फिर मैंने इसका नामकरण किया – उन्मुक्त आँगन। जिसमें मेरे विचार उन्मुक्त होकर जगह पा सके।
ज़ाहिर है लिखने 📝 के लिए टाईम निकालना जहाँ कठिन हो वहाँ लिखने के प्रचार-प्रसार पर कहाँ समय दे पाता, दो-तीन महीने में pageview कम होने लगी, बावज़ूद मुझे यह समझ में आया कि हर दो-चार दिन में जो मैं लिख रहा हूँ वह कैसी कविता बन रही होगी, सिर्फ़ Flow बढ़ाना मेरा मकसद था भी नहीं। फिर मैंने सिर्फ़ वही पोस्ट किया जो मुझे अच्छा लगा। नतीज़ा यह है कि पिछले लगभग छ: महीने में सिर्फ़ चार पोस्ट डाली गयीं हैं इस ब्लॉग पर।
कुछ दिनों पहले इस ब्लॉग के एक साल पूरे हो चुके हैं
और मुझे खुशी है कि अब तक इसे 5000 लोगों ने देखा है। यह कोई बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं है। लेकिन मेरे लिए बहुत छोटा भी नहीं है। वैसे चौंकाने वाली बात यह है कि हाल के कुछ महीनों में US, France और अरब देशों से बहुत ज़्यादा व्यूज़ आए हैं भारत के मुक़ाबले। पता नहीं यह खुशी की बात है कि दुखी होने की!
वैसे इस बात का श्रेय आप सभी को जाता है जिन्होंने इस ब्लॉग पर जाने पढ़ने और मेरा उत्साहवर्धन करने का आभार किया है। आप सबका बहुत धन्यवाद और हमेशा स्वागत।

नामालूम राह थी पर शुरूआत कहीं से करना ही था,
जब मिलने लगा साथ आपका, कारवाँ बनना ही था।

Wednesday 8 March 2017

बस स्त्री ही रहने दो

कुछ और नहीं बस
बराबर कर दो मुझे
घर में, बाहर में,
ज़िन्दगी की टेढ़ी नज़र में
और दुनिया के हर उस
बरामदे में
जहाँ बना हुआ है मेरे नाम का
छोटा-सा एक कोना
दीवारों से घिरा हुआ
मैं ख़ास नहीं
आम होना चाहती हूँ
मैं स्त्री हूँ, बस
स्त्री होना चाहती हूँ


चित्र :गुगल से


Friday 3 March 2017

भाषा के चित्र

तुम्हारी आँखें शब्दकोष हैं
हज़ारों शब्द हैं उनमें प्रेम के
तुम्हारी बातें व्याकरण हैं
उनसे संवरती है भाषा प्रेम की
तुम्हारी मुस्कान अलंकार है
सजता है मेरा काव्य जिससे
ये होंठ डायरी हैं
सुबह शाम लिखने के लिए
तुम गीत हो मेरे
पल-पल गुनगुनाने के लिए।

Friday 23 December 2016

यादों की अनुर्वर धरती

कविता
***---***

क्या जलाती ही रहेगी ताउम्र!
जुगनू-सी जलती-बुझती वह दृष्टि
ओझल होने से पहले जो
उसने डाली थी मुझपर

क्या ठहरी ही रहेगी वह घड़ी!
क़िस्सा होने से पहले हक़ीक़त था जिसमें
सशरीर शामिल होना उसका

क्या लुभाता ही रहेगा मुझे सदा
धधकता हुआ ताप सूर्य का
या चाहेगा निर्मम यह जलाना भी
अंतस में बसे स्मृतियों के छाप को

आँसू मेरे! बंद कर सींचना
यादों की अनुर्वर धरती
कि विरह के शूल उगाने से बेहतर है
इसका परती होना
कम-से-कम सुबह की ओस पर
चहलकदमी करने किरणें तो उतरेंगी प्राची की।
~अभिशान्त

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