कही-अनकही

मौसम की पहली बारिश! धप् -धप्  करती बूंदों का शोर।  अनंत से चलकर आती बूंदें। इतने मेहनत से गढ़े गए बूंदों की माला धरातल सेे टकराते ही बिखर गयी। प्रेम में समर्पण की शुरूआत स्वयं से बिखरे बिना नहीं होती शायद। यह बादल का प्रेम ही तो है जो खुद टूटकर, बिखरकर भी धरती की प्यास बुझाने आती है।इतनी लम्बी दूरी से चलकर आना कितना कष्टदायक होता होगा! बरसात-भर इनकी जिम्मेदारी बढ़ी ही रहेगी।
न जाने कितनों के अरमान जगाते ये मेघदूत कितनी बिरहिनों तक संदेशा पहुंचाने का काम करते हुए यहाँ तक आ पहुंचे हैं। मेरे जैसे कितने होंगे जिन्हें ये मेघ ललचाते होंगे। सुकून देते इनके बूंद मोतियों से झंकार पैदा करते हैं तन-मन में।
कहीं ऐसा होता कि बादल  की डोर थामे इस आकाश से आगे निकल लेते जहाँ मिल जाती और एक धरती। बिना ऊँची - ऊँची वर्जनाओं के। परवाह नहीं होता कि दिवारों के कान हैं या नहीं। लोगों की नज़रों में कौतूहल न होता हमें देखकर।  सिर्फ  मैं और तुम  अकेले ना भी होते तो कोई बात नहीं होती। क्योंकि वह धरती सिर्फ़ रहने की जगह होती, सुकून से।

चित्र :- commentsyard.com से साभार।

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