हाँ वही गांव –
जो गया था छोड़कर अरसा पहले,
खेतों में लहलहाता,
भागता पगडंडियों पे,
नालों में बहता कल-कल,
सिमटता पनघट में।
दलानों में बैठक लगाता,
बगीचे में सुस्ताता गांव।
चौहदी तो वही है किन्तु
दृश्य कुछ परिवर्तित है।
कुछ क्या बहुत कुछ,
गायब है जवानी इसकी,
कूच कर चुकी है,
कमाने रोजी-रोटी।
चेहरा उतरा- उतरा है
खेतों का पानी सुख गया लगता है।
मकान तो ज्यादातर पक्के हैं लेकिन,
परिवार बहुत कम बसता है इसमें।
बगीचा तो गायब ही है,
किसी ने बताया,
वो शहर गया है।
और इस अल्हड़ नदी को क्या हुआ?
नदी न हुई कोई बैरागी साधु जैसे
बढ़ आए हैं कमर तक घास और सरकंडे
मानो साधु ने बढ़ाई हो बाल दाढ़ी बेतरतीब।
पता चला सुखी ही रहती है नदी
नहीं आता अब उफान इसमें
जम गया रक्त प्रवाह धमनियों में ही।
हाँ, इस पर पुल बन गया है अब,
दीदार को तरस गयीं पीढ़ियाँ जिसकी।
यूँ खत्म हो गया दबदबा मल्लाहों का।
आगे,
ड्योढ़ी में खाट बिछाए दिख जाती है
बुढ़ापा, इस आस में कि
निकलने से पहले सुन ले जरा,
शहर से आयी किलकारियाँ
और सौंप दे विरासत में,
बिसरा ही सही पर
बचा खुचा गांव।
जो गया था छोड़कर अरसा पहले,
खेतों में लहलहाता,
भागता पगडंडियों पे,
नालों में बहता कल-कल,
सिमटता पनघट में।
दलानों में बैठक लगाता,
बगीचे में सुस्ताता गांव।
चौहदी तो वही है किन्तु
दृश्य कुछ परिवर्तित है।
कुछ क्या बहुत कुछ,
गायब है जवानी इसकी,
कूच कर चुकी है,
कमाने रोजी-रोटी।
चेहरा उतरा- उतरा है
खेतों का पानी सुख गया लगता है।
मकान तो ज्यादातर पक्के हैं लेकिन,
परिवार बहुत कम बसता है इसमें।
बगीचा तो गायब ही है,
किसी ने बताया,
वो शहर गया है।
और इस अल्हड़ नदी को क्या हुआ?
नदी न हुई कोई बैरागी साधु जैसे
बढ़ आए हैं कमर तक घास और सरकंडे
मानो साधु ने बढ़ाई हो बाल दाढ़ी बेतरतीब।
पता चला सुखी ही रहती है नदी
नहीं आता अब उफान इसमें
जम गया रक्त प्रवाह धमनियों में ही।
हाँ, इस पर पुल बन गया है अब,
दीदार को तरस गयीं पीढ़ियाँ जिसकी।
यूँ खत्म हो गया दबदबा मल्लाहों का।
आगे,
ड्योढ़ी में खाट बिछाए दिख जाती है
बुढ़ापा, इस आस में कि
निकलने से पहले सुन ले जरा,
शहर से आयी किलकारियाँ
और सौंप दे विरासत में,
बिसरा ही सही पर
बचा खुचा गांव।
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