विशाल वृक्ष
औंधा पड़ा था धरती पर।
बिखरे पत्ते
टूटी शाखें
और छितरायी हुई मिट्टी
बयां करते थे दास्तां
उसके संघर्ष की।
आखिरी कुल्हाड़ी के चलने तक
अपनी कमजोर पड़ रही
बाहों में गहकर
कितनी रोयी होगी धरती!
असमय आयी मृत्यु की पीड़ा
माँ से बेहतर कौन जानेगा?
रोया तो होगा वह कौआ भी
लौटा होगा जब
आसमान की चाकरी से
एक वही तो था
जिससे करता था मन की बात
शाख पर सोए-सोए।
हरवे-हथियारों के निशान
और जड़ों पर के आघात
वक्त के साथ मिट भी जाएंगे तो
मिट्टी समतल कर भी दी जाएगी तो
अमिट ही रहेगा खालीपन
उस धरती का।
घर लौटता हुआ पथिक
किसी दिन महसूस करेगा ही तपिश
सिमट गई हरियाली को देखकर।
औंधा पड़ा था धरती पर।
बिखरे पत्ते
टूटी शाखें
और छितरायी हुई मिट्टी
बयां करते थे दास्तां
उसके संघर्ष की।
आखिरी कुल्हाड़ी के चलने तक
अपनी कमजोर पड़ रही
बाहों में गहकर
कितनी रोयी होगी धरती!
असमय आयी मृत्यु की पीड़ा
माँ से बेहतर कौन जानेगा?
रोया तो होगा वह कौआ भी
लौटा होगा जब
आसमान की चाकरी से
एक वही तो था
जिससे करता था मन की बात
शाख पर सोए-सोए।
हरवे-हथियारों के निशान
और जड़ों पर के आघात
वक्त के साथ मिट भी जाएंगे तो
मिट्टी समतल कर भी दी जाएगी तो
अमिट ही रहेगा खालीपन
उस धरती का।
घर लौटता हुआ पथिक
किसी दिन महसूस करेगा ही तपिश
सिमट गई हरियाली को देखकर।
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