चलो एक दीया जलाएँ
चलो हैं जलाते दीया ऐसा जग का
न रहे बाक़ी जलना कोई कोना तम का
न धन की हो महिमा हवस हो न मन की
मिले दो नजर तो बहे भाव सम का
हो अवज्ञा, अनादार, निराशा न आँसू
करे चिंता कोई न इस आचरण का
मेरा घर भी चमके तेरा घर भी चमके
कुछ उपभोग ऐसे करें रौशनी का
जग का अंधेरा उठाकर चला जब
लगे भार से कि कदम डगमगाए
देखा पलटकर इधर भी उधर भी
कोई हाथ आकर जरा तो बँटा दे
रौशन करे घर ये सबकी दिवाली
कवि के हृदय की यही कामना है
रहे जगमगाता हरेक कोना जग का
चलो साथ में वह दीया भी जलाएँ।
©अभिशान्त
जीवन के क्षणों से निकल कर अनयास या (कभी-कभी) सायास कुछ भंगिमाएँ शब्दों में आकर समा जाती हैंं , उसे मैं कविता कहकर अपने पास रोक लेता हूँ ..उन्मुक्त आँगन में..!
Saturday, 29 October 2016
दीवाली और दीया
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