Friday 23 December 2016

यादों की अनुर्वर धरती

कविता
***---***

क्या जलाती ही रहेगी ताउम्र!
जुगनू-सी जलती-बुझती वह दृष्टि
ओझल होने से पहले जो
उसने डाली थी मुझपर

क्या ठहरी ही रहेगी वह घड़ी!
क़िस्सा होने से पहले हक़ीक़त था जिसमें
सशरीर शामिल होना उसका

क्या लुभाता ही रहेगा मुझे सदा
धधकता हुआ ताप सूर्य का
या चाहेगा निर्मम यह जलाना भी
अंतस में बसे स्मृतियों के छाप को

आँसू मेरे! बंद कर सींचना
यादों की अनुर्वर धरती
कि विरह के शूल उगाने से बेहतर है
इसका परती होना
कम-से-कम सुबह की ओस पर
चहलकदमी करने किरणें तो उतरेंगी प्राची की।
~अभिशान्त

3 comments:

  1. wow very nice..happy new year2017
    www.shayariimages2017.com

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  2. धन्यवाद एवं स्वागत आपका निधि.. नए साल की शुभकामनाएँ!

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  3. धन्यवाद आपका और स्वागत!

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