दिलवालों की दिल्ली में जाने का यह पहला अवसर था।सो रोमांच चरम पर होना लाजिमी था।दरअसल रामसुख ने बचपन से ही दिल्ली घूमने का सपना पाल रखा था। पर दिल्ली जाना-आना और घूमना कोई हंसी खेल तो था नहीं। पर जाने का धुन भी पक्का था। सो बचपन की इच्छा को अपने साथ वह जवानी में भी लेता गया। आखिर अपनी मेहनत की कमाई से काम के पैसे जोड़ने के बाद वो इस लायक हो गया था कि दिल्ली जाकर घूम आए।अब तो उसका दोस्त भुवन भी दिल्ली में ही नौकरी करने लगा था।अंतत: उसने दिल्ली जाने का मन बना लिया। अब आगे की दास्तान रामसुख से ही सुन लीजिए--
आगे का वृतांत सुनाने से पहले मैं बता दूँ कि सिर्फ आठवीं पास होने के बावजूद राजनीति का जेनरल नॉलेज मुझमें कुछ ज्यादा है। दिल्ली-दर्शन का सपना तो था ही,हाल के दिनों में राजनीति के सारे चमचमाते सितारे दिल्ली में सतरंगी छटा बिखेर रहे थे।कई मंच सजे थे।राजनीति के मंजे-अधमंजे कलाकार अपनी अद्भुत नाट्य कला से जनता जनार्दन का मनोरंजन कर रहे थे। सो दिल्ली -भ्रमण का पूर्ण आनंद प्राप्त करने हेतु मैंने भी तैयारी कर ली और एक दिन अपने गंवई उत्साह और कौतुहल को झोले में डालकर पकड़ ली ट्रेन दिल्ली की। ट्रेन क्या थी कोई भूसे से लदी जैसे गाड़ी थी।दीगर बात है कि भूसे के बदले इसमें लोग ठूंसे हुए थे। मैंने भी अपने आपको ठूंस लिया थोड़ी देर की मशक्कत के बाद । पूरे छब्बीस घंटे की देहछिलाऊ यात्रा शौचालय और दरवाजे के इर्द-गिर्द खड़े-खड़े पूरी करने के बाद जब दिल्ली जंक्शन के प्लेटफॉर्म पर उतरा तो शक्ल चूसे आम-सा और मैं नर-समूहों में पीसकर दो-ढ़ाई किलो कम हो चुका था। किसी तरह सोये हुए उत्साह और कौतुहल को जगाया और बाहर की तरफ हो लिया ।
अगले दिन लाल किला देखने का कार्यक्रम बना। देखा तो समझ में आया कि कभी हिन्दुस्तान की सत्ता को संचालित करने वाली भव्य इमारत अपने अतीत को संभाले मजबूती से वर्तमान में खड़ा है । घूमने के दौरान प्राचीर की तरफ नजरें गयीं तो छप्पन-इंची सीने के साथ प्रधानमंत्री को भाषण करते टीवी पर देखने की याद आ गयी।
कुछ कदम आगे बढ़ा कि अच्छे दिनों की बांसुरी मिल गयी।मूँह लटकाये। पूछने पर बतायी कंठ ही अवरूद्ध है । अब बिना सुर की बांसुरी कौन लटकाये फिरे।कुतुबमीनार देखने की खुशी दबाये आगे बढ़ा तो शाम ढ़लने लगी थी । गहराते अंधेरे के बीच यह आशंका भी गहराने लगी थी कि कालेधन का जिन्न वापस बोतल में न बंद हो जाए।मेरी आशंका निर्मूल साबित न हो सकी और पहचान छुपाए कालेधन का चुनावी जिन्न वापस अंधेरे के बोतल में जा बैठा था। दिख जाता तो विश्वास कीजिए दिल्ली -भ्रमण का रोमांच कई गुना ज्यादा होता।
वर्तमान के चकाचौंध में पहूंचते ही सबसे पहला दर्शन अपनी नायाब और दुनिया की इकलौती इमानदारी के धारक केजरी महोदय से हुई। बड़े-बड़े,महंगे साईनबोर्डों से चमकती उनकी ईमानदारी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। भारी-भरकम जंग खा चुके आदर्शों का ढ़ेर कूड़े की शक्ल में पास में ही जमा था। मालुम हुआ सबसे तेजी से रंग बदलने के लिए जल्द ही उन्हें रिकार्ड्स बुक में जगह मिलने वाली है ।
इस बीच झोले में रखे अपने आठवीं के सर्टिफिकेट्स की जांच मैंने एक बार फिर से कर ली।क्या पता डिग्री सत्यापन दस्ते से पाला पड़ जाए!
अगले दिन काफी आरज़ू मिन्नत के बाद आखिर में पंजाधारी दल के युवराज से मिलने का सपना भी पूरा हुआ।वैसे यात्रा का मनोरथ तो युवराज के दर्शन मात्र से ही पूरा हो गया था पर मैं ही असंतुष्ट भक्त के जैसे थोड़ा और के लोभ में पड़ गया और एक सीधा सवाल उगल दिया। सवाल कि आखिर दिल्ली से बहाया गया विकास का तेज करंट गांवों और झोपड़ियों में पहूंचते ही डिफ्यूज़ कैसे हो जाता है? मेरी कोशिश यह थी कि शायद उनके पास से वह स्वीच मिल जाए जिसे आफ कर देने से गरीबी का तेज उजाला सिमट जाता । कहना न होगा कि किसी तरह बाआबरू मैं वहाँ से निकला।वैसे उनके अनथक झोपड़ी भ्रमण एवं प्रवास ने मुझमें यह आशा जगायी थी।
इस बीच घर से साथ लाया भूने हुए चने एवं नमकीन का स्टाँक खत्म हो चला था और दिल्ली में रहने की इच्छा भी। पर वापस लौटने से पहले समाजवाद के मशहूर चेहरों से मिलने की मेरी इच्छा भी मैं पूरी कर लेना चाहता था। यह सोचकर कि शायद यह पता चल जाए कि समाजवाद की कैसी सुनहरी सीढ़ी बनवायी उन्होंने जिस पर चढ़कर वे रातोंरात वैभव और ऐश्वर्य की उँची - उँची अट्टालिकाओं पर विराजमान हो गए। शायद मेरी फटेहाली दूर करने का भी कोई तजूर्बा मिल जाए इनसे!!
आगे का वृतांत सुनाने से पहले मैं बता दूँ कि सिर्फ आठवीं पास होने के बावजूद राजनीति का जेनरल नॉलेज मुझमें कुछ ज्यादा है। दिल्ली-दर्शन का सपना तो था ही,हाल के दिनों में राजनीति के सारे चमचमाते सितारे दिल्ली में सतरंगी छटा बिखेर रहे थे।कई मंच सजे थे।राजनीति के मंजे-अधमंजे कलाकार अपनी अद्भुत नाट्य कला से जनता जनार्दन का मनोरंजन कर रहे थे। सो दिल्ली -भ्रमण का पूर्ण आनंद प्राप्त करने हेतु मैंने भी तैयारी कर ली और एक दिन अपने गंवई उत्साह और कौतुहल को झोले में डालकर पकड़ ली ट्रेन दिल्ली की। ट्रेन क्या थी कोई भूसे से लदी जैसे गाड़ी थी।दीगर बात है कि भूसे के बदले इसमें लोग ठूंसे हुए थे। मैंने भी अपने आपको ठूंस लिया थोड़ी देर की मशक्कत के बाद । पूरे छब्बीस घंटे की देहछिलाऊ यात्रा शौचालय और दरवाजे के इर्द-गिर्द खड़े-खड़े पूरी करने के बाद जब दिल्ली जंक्शन के प्लेटफॉर्म पर उतरा तो शक्ल चूसे आम-सा और मैं नर-समूहों में पीसकर दो-ढ़ाई किलो कम हो चुका था। किसी तरह सोये हुए उत्साह और कौतुहल को जगाया और बाहर की तरफ हो लिया ।
अगले दिन लाल किला देखने का कार्यक्रम बना। देखा तो समझ में आया कि कभी हिन्दुस्तान की सत्ता को संचालित करने वाली भव्य इमारत अपने अतीत को संभाले मजबूती से वर्तमान में खड़ा है । घूमने के दौरान प्राचीर की तरफ नजरें गयीं तो छप्पन-इंची सीने के साथ प्रधानमंत्री को भाषण करते टीवी पर देखने की याद आ गयी।
कुछ कदम आगे बढ़ा कि अच्छे दिनों की बांसुरी मिल गयी।मूँह लटकाये। पूछने पर बतायी कंठ ही अवरूद्ध है । अब बिना सुर की बांसुरी कौन लटकाये फिरे।कुतुबमीनार देखने की खुशी दबाये आगे बढ़ा तो शाम ढ़लने लगी थी । गहराते अंधेरे के बीच यह आशंका भी गहराने लगी थी कि कालेधन का जिन्न वापस बोतल में न बंद हो जाए।मेरी आशंका निर्मूल साबित न हो सकी और पहचान छुपाए कालेधन का चुनावी जिन्न वापस अंधेरे के बोतल में जा बैठा था। दिख जाता तो विश्वास कीजिए दिल्ली -भ्रमण का रोमांच कई गुना ज्यादा होता।
वर्तमान के चकाचौंध में पहूंचते ही सबसे पहला दर्शन अपनी नायाब और दुनिया की इकलौती इमानदारी के धारक केजरी महोदय से हुई। बड़े-बड़े,महंगे साईनबोर्डों से चमकती उनकी ईमानदारी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। भारी-भरकम जंग खा चुके आदर्शों का ढ़ेर कूड़े की शक्ल में पास में ही जमा था। मालुम हुआ सबसे तेजी से रंग बदलने के लिए जल्द ही उन्हें रिकार्ड्स बुक में जगह मिलने वाली है ।
इस बीच झोले में रखे अपने आठवीं के सर्टिफिकेट्स की जांच मैंने एक बार फिर से कर ली।क्या पता डिग्री सत्यापन दस्ते से पाला पड़ जाए!
अगले दिन काफी आरज़ू मिन्नत के बाद आखिर में पंजाधारी दल के युवराज से मिलने का सपना भी पूरा हुआ।वैसे यात्रा का मनोरथ तो युवराज के दर्शन मात्र से ही पूरा हो गया था पर मैं ही असंतुष्ट भक्त के जैसे थोड़ा और के लोभ में पड़ गया और एक सीधा सवाल उगल दिया। सवाल कि आखिर दिल्ली से बहाया गया विकास का तेज करंट गांवों और झोपड़ियों में पहूंचते ही डिफ्यूज़ कैसे हो जाता है? मेरी कोशिश यह थी कि शायद उनके पास से वह स्वीच मिल जाए जिसे आफ कर देने से गरीबी का तेज उजाला सिमट जाता । कहना न होगा कि किसी तरह बाआबरू मैं वहाँ से निकला।वैसे उनके अनथक झोपड़ी भ्रमण एवं प्रवास ने मुझमें यह आशा जगायी थी।
इस बीच घर से साथ लाया भूने हुए चने एवं नमकीन का स्टाँक खत्म हो चला था और दिल्ली में रहने की इच्छा भी। पर वापस लौटने से पहले समाजवाद के मशहूर चेहरों से मिलने की मेरी इच्छा भी मैं पूरी कर लेना चाहता था। यह सोचकर कि शायद यह पता चल जाए कि समाजवाद की कैसी सुनहरी सीढ़ी बनवायी उन्होंने जिस पर चढ़कर वे रातोंरात वैभव और ऐश्वर्य की उँची - उँची अट्टालिकाओं पर विराजमान हो गए। शायद मेरी फटेहाली दूर करने का भी कोई तजूर्बा मिल जाए इनसे!!
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