जीवन के क्षणों से निकल कर अनयास या (कभी-कभी) सायास कुछ भंगिमाएँ शब्दों में आकर समा जाती हैंं , उसे मैं कविता कहकर अपने पास रोक लेता हूँ ..उन्मुक्त आँगन में..!
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कहानी : नजरिया
“कितने हुए..? “-कुर्ते की ज़ेब में हाथ डालते हुए रामकिसुन ने पूछा। “पंद्रह रूपये हुजूर”- हांफते हुए कहा रिक्शेवाले ने। “अरेssss..!.. क्या...
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ReplyDeleteधन्यवाद! ब्लॉग पर आपका स्वागत है
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